दिल्ली : कृषि जगत में एक महत्वपूर्ण उपलब्धि के रूप में ब्राज़ील की अग्रणी वैज्ञानिक डॉ. मारियांगेला हुंग्रिया दा कुन्हा को विश्व खाद्य पुरस्कार 2025 से सम्मानित किया गया है। यह पुरस्कार कृषि का नोबेल पुरस्कार माना जाता है, और उनके शोध ने ब्राज़ील को रासायनिक नाइट्रोजन खाद पर भारी निर्भरता से मुक्त करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। उनके द्वारा विकसित जैविक नाइट्रोजन स्थिरीकरण (Biological Nitrogen Fixation) की तकनीक ने ब्राज़ील को हर वर्ष लगभग 25 अरब अमेरिकी डॉलर की रासायनिक उर्वरक लागत से बचाया है।
भारत में पहले ही मौजूद थी यह तकनीक
जबकि इस उपलब्धि पर ब्राज़ील की वैज्ञानिक को हार्दिक बधाई दी जा रही है, इस संदर्भ में भारत में पहले से मौजूद जैविक तकनीक की अनदेखी का प्रश्न भी उठता है। मां दंतेश्वरी हर्बल फार्म एवं रिसर्च सेंटर, कोंडागांव, छत्तीसगढ़ में वर्षों की मेहनत और शोध के बाद नेचुरल ग्रीनहाउस मॉडल विकसित किया गया था, जो जैविक नाइट्रोजन स्थिरीकरण की पूरी प्रक्रिया को भारतीय कृषि के अनुकूल बनाता है।
इस तकनीक में विशेष प्रकार के बहुवर्षीय पौधे, विशेष रूप से ऑस्ट्रेलियाई मूल के अकूशिया प्रजाति के वृक्षों को वैज्ञानिक पद्धति से विकसित करके उनकी जड़ों में वायुमंडलीय नाइट्रोजन को स्थिर किया जाता है। इसके बाद, इन पौधों की पत्तियों से बनने वाला ग्रीन कंपोस्ट मिट्टी को समृद्ध बनाता है। परिणामस्वरूप, इन वृक्षों के साथ लगाए जाने वाले लगभग सभी अंतर्वर्ती फसलों को रासायनिक खाद की आवश्यकता नहीं पड़ती, और यह प्राकृतिक प्रक्रिया दशकों तक टिकाऊ बनी रहती है।
किसानों के लिए आर्थिक लाभ और सब्सिडी की बचत
वर्तमान में भारत के 16 से अधिक राज्यों के प्रगतिशील किसान इस नेचुरल ग्रीनहाउस मॉडल को अपना चुके हैं।
इस तकनीक से:
– रासायनिक खाद पर निर्भरता समाप्त हो रही है
– भारत सरकार की ₹45,000 से ₹50,000 करोड़ की नाइट्रोजन उर्वरक सब्सिडी में भारी बचत संभव हो रही है
– देश को रासायनिक उर्वरकों के कच्चे माल के आयात पर निर्भरता से मुक्त किया जा सकता है
– किसानों को लंबे समय तक आत्मनिर्भर और लागत मुक्त कृषि का अवसर मिल सकता है
आखिर ऐसा क्यों हुआ…कौन लेगा इसकी जिम्मेदारी
अब जबकि जैविक नाइट्रोजन स्थिरीकरण की इसी तकनीक को वैश्विक स्तर पर पहचान मिल चुकी है, भारत सरकार की नीति और कृषि मंत्रालय की भूमिका पर गंभीर प्रश्न उठते हैं।
यदि भारत सरकार समय रहते इस देशी तकनीक को प्राथमिकता देकर अपनाती, तो संभवतः विश्व खाद्य पुरस्कार भारत के नाम होता। हालांकि, अब भी देर नहीं हुई है—यह आवश्यक है कि नीति निर्माता इस शोध को समर्थन दें, इसे राष्ट्रीय कृषि नीति में शामिल करें, और किसानों को रासायनिक खादों के जाल से मुक्त करने की दिशा में ठोस कदम उठाएं।
यह नवाचार केवल भारत के किसानों की आत्मनिर्भरता ही नहीं, बल्कि देश की आर्थिक सुरक्षा और पर्यावरण संरक्षण के लिए भी अनिवार्य साबित हो सकता है। कृषि जगत को ऐसे नवाचारों को समर्थन देने और उन्हें व्यापक स्तर पर लागू करने की आवश्यकता है, ताकि भारत जैविक कृषि में अग्रणी भूमिका निभा सके।