मुंबई, 05 दिसंबर (कृषि भूमि ब्यूरो): 2025 में कॉपर की कीमतों ने वैश्विक बाजार में अभूतपूर्व तेजी दिखाई है। लंदन मेटल एक्सचेंज (LME) पर तांबे की कीमतें बढ़कर $11,543 प्रति टन के सर्वकालिक उच्च स्तर पर पहुंच गईं। जनवरी से लेकर दिसंबर तक इसकी कीमतों में लगभग 34% की तेज़ वृद्धि हुई है। यह उछाल वैश्विक बेस मेटल मार्केट में सबसे अधिक है, और एक्सपर्ट इसे “सुपरसाइकिल” जैसी स्थिति बताते हैं।

एक वर्ष के भीतर कॉपर लगभग 29% चढ़ चुका है, जबकि पिछले एक महीने में इसमें अतिरिक्त 7% की तेजी दर्ज की गई। निवेशक अमेरिकी फेडरल रिज़र्व के फैसले और आगामी अमेरिकी आर्थिक डेटा पर नज़र बनाए हुए हैं, लेकिन सप्लाई-डिमांड असंतुलन ने कीमतों को नए उच्च स्तर पर पहुंचाने में सबसे बड़ी भूमिका निभाई है।

वैश्विक सप्लाई संकट: उत्पादन गिरा, स्मेल्टिंग रुकी, मांग बढ़ी

2025 में कॉपर की कीमत बढ़ने का सबसे बड़ा कारण वैश्विक स्तर पर सप्लाई में आई भारी कमी रहा है। चिली, जो दुनिया का सबसे बड़ा कॉपर उत्पादक है, वहां सरकारी कंपनी Codelco लगातार उत्पादन लक्ष्य से पीछे चल रही है। इंडोनेशिया और कांगो में भी कई खानों में अचानक आई रुकावटों ने उपलब्धता को और कम कर दिया। कई प्रोजेक्ट्स तकनीकी और पर्यावरणीय कारणों से ठप पड़े हुए हैं।

चीन, जो रिफाइंड कॉपर का सबसे बड़ा उपभोक्ता है, वहां स्मेल्टिंग गतिविधियों में उल्लेखनीय कमी आई है। कंसंट्रेट की उपलब्धता में कमी और लागत बढ़ने के कारण कई स्मेल्टर्स कम क्षमता पर काम कर रहे हैं। इससे बाजार में रिफाइंड कॉपर की सप्लाई पर और दबाव बढ़ गया।

इसी बीच, AI डेटा सेंटरों, इलेक्ट्रिक वाहनों की बिक्री, नवीकरणीय ऊर्जा इकाइयों और वैश्विक इंफ्रास्ट्रक्चर विस्तार की वजह से कॉपर की मांग तेज़ी से बढ़ती जा रही है। विशेषज्ञ पहले ही चेतावनी दे चुके हैं कि मौजूदा उत्पादन दुनिया की अगले दशक की मांग का केवल 70% ही पूरा कर पाएगा।

इन्वेंट्री के गिरने से और तेज़ हुई रैली

LME वेयरहाउसों में कॉपर इन्वेंट्री 2013 के बाद सबसे कम स्तर पर आ चुकी है। रिफाइंड कॉपर की कमी ने ट्रेडर्स को स्टॉक्स जमा करने के लिए प्रेरित किया, जिससे कीमतों में तेजी और अधिक बढ़ गई।

Mercuria जैसी ट्रेडिंग कंपनियों द्वारा एशिया में बड़े पैमाने पर कॉपर की खरीद ने यूरोप और अमेरिका में उपलब्धता को और कम कर दिया, जिसने कीमतों को ऊपर धकेलने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

भारतीय बाजार पर असर: उद्योगों पर बढ़ता लागत दबाव

कॉपर की अंतरराष्ट्रीय कीमतें रिकॉर्ड स्तर पर पहुंचने के बाद भारतीय बाजार भी भारी असर महसूस कर रहा है। स्थानीय एक्सचेंज MCX पर कॉपर के भाव 18 महीने के उच्चतम स्तर पर पहुँच चुके हैं।

भारतीय विनिर्माण क्षेत्र, विशेष रूप से इलेक्ट्रिकल और इलेक्ट्रॉनिक उद्योग, तेजी से बढ़ते कॉपर भावों से दबाव में आ गए हैं। केबल और वायर बनाने वाली कंपनियों की लागत सीधे कॉपर पर निर्भर करती है, इसलिए इन उत्पादों की कीमतों में और बढ़ोतरी की आशंका है।

भारत में रियल एस्टेट और इंफ्रास्ट्रक्चर क्षेत्र भी इस बढ़ती लागत का प्रभाव झेल रहा है। निर्माण परियोजनाओं में कॉपर का उपयोग व्यापक है, जिससे कंस्ट्रक्शन लागत बढ़ सकती है। यह असर विशेष रूप से उन प्रोजेक्ट्स पर दिखेगा जो आने वाले वर्षों में इलेक्ट्रिक ग्रिड, स्मार्ट सिटी और मेट्रो विस्तार जैसी योजनाओं पर आधारित हैं।

इलेक्ट्रिक वाहन उद्योग भी इससे अछूता नहीं है। EV मोटर्स, बैटरी पैक्स, चार्जिंग इंफ्रा और पावर इलेक्ट्रॉनिक्स में कॉपर का उपयोग अत्यधिक है। कीमतों में लगातार उछाल से EV मैन्युफैक्चरर्स की लागत बढ़ेगी, जिसका कुछ हिस्सा उपभोक्ताओं तक पहुंचना तय है।

घरेलू उपकरण बनाने वाली कंपनियों—एसी, फ्रिज, पंखे, इनवर्टर आदि—को भी महंगे कॉपर का सामना करना पड़ रहा है। कई कंपनियां लागत नियंत्रित करने के लिए वैकल्पिक मटेरियल की खोज में जुटी हैं, लेकिन तकनीकी सीमाओं के कारण कॉपर की जगह लेना आसान नहीं है।

2026 का आउटलुक: क्या कॉपर और महंगा होगा?

वैश्विक विश्लेषण यह संकेत दे रहे हैं कि निकट भविष्य में कॉपर के दाम में गिरावट की संभावना बेहद कम है।

J.P. Morgan Global Research का अनुमान है कि 2026 की दूसरी तिमाही में कॉपर के दाम $12,500 प्रति टन तक पहुँच सकते हैं। वहीं, Reuters के एक पोल के मुताबिक 2026 में कॉपर की औसत कीमत $10,500 प्रति टन के आसपास रहने की उम्मीद है, जो 2025 की तुलना में भी अधिक है।

भारतीय विश्लेषकों का भी यही मानना है कि नई कॉपर खदानों को पूरी क्षमता से उत्पादन शुरू करने में कम से कम 3 से 4 साल लगेंगे। इस कारण, अगले 6–8 महीनों में कीमतें नीचे आने की संभावना नहीं है।

इसका मतलब है कि भारत में घरेलू उद्योगों पर लागत का दबाव लंबे समय तक बना रहेगा और सरकार को आयात निर्भरता कम करने के लिए नीतिगत बदलावों पर विचार करना पड़ सकता है।

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