सरसों की फसल में सल्फर का अहम योगदान, गुणवत्ता और उपज दोनों में होगा सुधार

मुंबई, 10 अक्टूबर (कृषि भूमि डेस्क): सरसों की खेती भारत के कई हिस्सों में प्रमुखता से की जाती है और यह किसानों की आय का एक महत्वपूर्ण स्रोत है। इस फसल की गुणवत्ता और उत्पादन को बेहतर बनाने में कई पोषक तत्वों की भूमिका होती है, जिनमें सल्फर (गंधक) का नाम विशेष रूप से लिया जाता है। सल्फर का उचित प्रयोग न केवल तेल की मात्रा बढ़ाता है, बल्कि दानों की गुणवत्ता और फसल की समग्र वृद्धि को भी सकारात्मक रूप से प्रभावित करता है।

सल्फर डालने का सही समय
सल्फर देने का सबसे सही समय बुवाई के साथ होता है। जब किसान इसे बेसल डोज़ के रूप में अन्य खादों जैसे डीएपी, यूरिया और पोटाश के साथ मिलाकर मिट्टी में डालते हैं, तो यह पौधों को शुरुआत से ही जरूरी पोषण देना शुरू कर देता है। यदि मिट्टी में सल्फर की कमी हो, तो इसकी पूर्ति टॉप ड्रेसिंग के माध्यम से की जा सकती है। इसके लिए बुवाई के 30 से 35 दिन बाद, जब पौधों में 5-6 पत्तियाँ आ चुकी हों या फूल आने की अवस्था से पहले, सल्फर डालना फायदेमंद होता है।

सल्फर की मात्रा प्रति एकड़
प्रति एकड़ सल्फर की औसत मात्रा 10 से 12 किलो होती है। यदि किसान बेंटोनाइट सल्फर (90%) का उपयोग करते हैं, तो उन्हें 12 से 15 किलो की मात्रा देनी चाहिए, जबकि जिप्सम (18% S) के लिए 60 से 70 किलो पर्याप्त मानी जाती है।

सल्फर देने का तरीका
सल्फर देने का तरीका भी उतना ही महत्वपूर्ण है जितनी उसकी मात्रा। बुवाई के समय इसे मिट्टी में मिलाना चाहिए, जबकि टॉप ड्रेसिंग के दौरान इसे बारीक पाउडर के रूप में हल्की सिंचाई के साथ मिलाना बेहतर होता है। ध्यान रखना चाहिए कि सल्फर बीज के सीधे संपर्क में न आए और इसे हमेशा नम मिट्टी में डालना अधिक प्रभावी रहता है।

सल्फर की कमी से पत्तियाँ पीली और छोटी रह जाती हैं, पौधों की बढ़वार धीमी हो जाती है और फूल व फलियों की संख्या भी घट जाती है, जिससे सीधे उपज पर असर पड़ता है। इसलिए यह आवश्यक है कि किसान समय पर और संतुलित मात्रा में सल्फर का उपयोग करें, जिससे उनकी मेहनत का पूरा फल मिल सके।

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