कुलगाम, 5 नवंबर (कृषि भूमि ब्यूरो): दक्षिण कश्मीर के कुलगाम ज़िले में, जहाँ कभी पत्तागोभी उगती थी, अब केसर खिल रहा है। यह नज़ारा कश्मीर की ‘केसर नगरी’ पंपोर से दूर, सॉइल साइंटिस्ट डॉ. ज़हूर रीशी के जल-आधारित प्रयोग का परिणाम है, जिसने ‘लाल सोना’ की कहानी को नए सिरे से लिख दिया है।
डॉ. रीशी ने अपने घर के पीछे ज़मीन के एक छोटे से टुकड़े पर वह कर दिखाया जो कभी असंभव माना जाता था। उन्होंने एक ऐसे क्षेत्र में केसर की खेती की है, जो केवल सब्ज़ियों की पैदावार के लिए जाना जाता है। दो साल पहले छोड़े गए कुछ कंदों से शुरू हुआ यह प्रयोग अब एक क्रांतिकारी सफलता बन चुका है।
रीशी बताते हैं, “लोगों को दशकों से कहा जाता रहा है कि केसर को कभी पानी नहीं देना चाहिए, लेकिन यह आधा सच है। अंकुरण और फूल आने के दौरान इसे उतनी ही नमी की ज़रूरत होती है जितनी किसी सब्ज़ी को।”
उनके अनुसार, नमी और छाया के सही संतुलन से केसर के पौधे पंपोर की तुलना में चार गुना ऊँचे, करीब 22 इंच तक बढ़े हैं। कुलगाम की ठंडी जलवायु और स्थायी नमी ने इसे बढ़त दी है, जिससे पौधे जल्दी फूलते हैं और बेहतर गुणवत्ता का केसर प्राप्त होता है।
तीन साल में डॉ. रीशी ने तीन छोटी क्यारियों से लगभग 30 ग्राम केसर प्राप्त किया। भले ही यह मात्रा कम है, लेकिन इससे यह साबित हो गया है कि केसर कश्मीर में कहीं भी उगाया जा सकता है, बशर्ते वैज्ञानिक विधियाँ अपनाई जाएँ।
उनका कहना है, “अगर मिट्टी को हवादार रखें, नमी को नियंत्रित करें और पौधों की ज़रूरत समझें, तो केसर हर जगह खिल सकता है। यह परंपरा को खत्म करने का नहीं, बल्कि विज्ञान के साथ उसे आगे बढ़ाने का तरीका है।”
डॉ. रीशी अपने निष्कर्षों पर आधारित एक किताब तैयार कर रहे हैं और मानते हैं कि नियंत्रित तापमान और आर्द्रता के साथ साल में दो से तीन बार केसर की खेती भी संभव है।
यह सफलता ऐसे समय आई है जब कश्मीर में पारंपरिक केसर किसान लगातार घटते उत्पादन से जूझ रहे हैं। आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार, 1990 के दशक में 5700 हेक्टेयर में फैली केसर खेती अब घटकर सिर्फ 3665 हेक्टेयर रह गई है। किसान इस गिरावट के लिए मौसम की अनियमितता, सिंचाई की कमी और शहरी विस्तार को जिम्मेदार ठहराते हैं।
ऐसे माहौल में कुलगाम से उठी यह नई पहल ‘लाल सोना’ की दुनिया में उम्मीद की नई रोशनी बनकर उभरी है।
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