नई दिल्ली, 13 नवंबर (कृषि भूमि ब्यूरो): पंजाब सरकार ने भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (ICAR) को पत्र लिखकर उन छह नई गेहूं किस्मों पर गंभीर आपत्ति जताई है जिन्हें हाल ही में केंद्र सरकार ने अधिसूचित किया है। राज्य का कहना है कि ये किस्में सामान्य गेहूं की तुलना में लगभग 50% अधिक रासायनिक उर्वरक – नाइट्रोजन (N), फॉस्फोरस (P) और पोटाश (K) – की मांग करती हैं, जो पंजाब की कृषिगत परिस्थितियों और मिट्टी की सेहत के लिए उपयुक्त नहीं हैं।
पंजाब कृषि विश्वविद्यालय (PAU) ने भी इन किस्मों को राज्य के लिए अनुपयुक्त बताते हुए इनके प्रयोग पर रोक लगाने की सिफारिश की है।
कौन-सी छह किस्में विवाद में?
PAU के अनुसंधान निदेशक डॉ. अजमेर सिंह धत्त के अनुसार केंद्र ने जिन किस्मों को मंजूरी दी है, वे हैं – DBW 303, DBW 327, DBW 332, DBW 370, DBW 371 और DBW 372।
इन सभी किस्मों का परीक्षण “हाई इनपुट ट्रायल्स” के अंतर्गत किया गया था, यानी इन्हें सामान्य से कहीं अधिक खाद और ग्रोथ रेगुलेटर देकर विकसित किया गया। जहां किसान आम तौर पर दो बोरी यूरिया/NPK/DAP का उपयोग करते हैं, वहीं इन नई किस्मों के लिए कम से कम तीन बोरी खाद की सिफारिश की गई है। परीक्षण के दौरान फार्मयार्ड मैन्योर (गोबर की खाद) और ग्रोथ रिटार्डेंट लेहोसिन का भी प्रयोग किया गया था।
पंजाब सरकार ने ICAR से मांगी तत्काल स्पष्टीकरण
पंजाब स्टेट सीड्स कॉर्पोरेशन (PunSeed) की प्रबंध निदेशक शैलेन्द्र कौर ने ICAR के महानिदेशक एम.एल. जात को पत्र लिखकर कहा है कि राज्य को इन किस्मों पर तत्काल दिशा-निर्देश चाहिए, क्योंकि किसानों के लिए बीजों की आपूर्ति जल्द शुरू करनी है।
उन्होंने यह भी कहा कि ये बीज राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन (NFSM) और राष्ट्रीय कृषि विकास योजना (RKVY) के तहत सब्सिडी या मुफ्त वितरण के लिए प्रस्तावित हैं। ऐसे में गलत सूचना या भ्रम से किसानों को नुकसान हो सकता है।
PAU की चेतावनी: अधिक लागत, मिट्टी की सेहत पर असर
PAU का कहना है कि ये किस्में “अनुशंसित उर्वरक खुराक” के आधार पर विकसित नहीं की गई हैं। इनका व्यापक उपयोग किसानों को रासायनिक खादों, फफूंदनाशकों और ग्रोथ रेगुलेटर पर अधिक निर्भर कर देगा। विश्वविद्यालय का स्पष्ट कहना है कि वह “इन किस्मों की खेती की अनुशंसा नहीं करता”, क्योंकि इससे किसानों की लागत बढ़ेगी, मिट्टी की उर्वरता गिर सकती है, साथ ही आगे चलकर पर्यावरण और भूजल पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है।
ICAR का पक्ष: अधिक उपज के लिए अधिक इनपुट आवश्यक
ICAR के सूत्रों के अनुसार इन किस्मों की उपज 7.5–8 टन प्रति हेक्टेयर तक हो सकती है, जबकि पारंपरिक किस्मों की औसत उपज 5–6 टन रहती है। उनका तर्क है कि चूंकि ये किस्में अर्ली सॉइंग (शुरुआती बुवाई) के लिए विकसित की गई हैं, इसलिए पोषक तत्वों की अपेक्षा अधिक है। सूत्रों का कहना है, “अगर किसान ज्यादा उत्पादन चाहते हैं तो उन्हें यह विकल्प दिया जाना चाहिए।”
PBW 872: PAU की अपनी उच्च उत्पादक किस्म
दिलचस्प है कि पंजाब कृषि विश्वविद्यालय ने खुद PBW 872 नाम की किस्म विकसित की है, जो DBW श्रृंखला जितनी ही उच्च उत्पादक है। यह किस्म ब्राउन रस्ट रोग के प्रति प्रतिरोधी, चपाती गुणवत्ता के लिए उपयुक्त, लगभग 152 दिनों में परिपक्व, और 9 टन प्रति हेक्टेयर तक उपज देने में सक्षम है।
हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय, हिसार भी इसी तरह की उच्च उत्पादक किस्मों पर काम कर रहा है।
स्थिरता बनाम उत्पादकता की बहस
यह विवाद गेहूं की कुछ किस्मों से आगे बढ़कर भारतीय कृषि में उठ रहे बड़े प्रश्न की ओर इशारा करता है – क्या अत्यधिक उत्पादन के लिए अधिक रासायनिक खादों और इनपुट पर निर्भर होना सही है?
मिट्टी में पोषक तत्वों का असंतुलन, भूजल का खतरनाक स्तर पर दोहन, और लगातार घटती जैविक उर्वरता जैसी समस्या को पंजाब पहले से ही झेल रहा है। ऐसे में राज्य का कहना है कि भविष्य की खेती का मॉडल “कम इनपुट, ज्यादा लाभ” होना चाहिए, न कि “ज्यादा खाद, ज्यादा उत्पादन”।
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