Delhi News : जून 2025 में खुदरा महंगाई दर (CPI) गिरकर 2.1% पर पहुंच गई, जो बीते छह वर्षों का सबसे निचला स्तर है। भारतीय रिजर्व बैंक (RBI) और आर्थिक नीति निर्माताओं के लिए यह अच्छी खबर मानी जा रही है क्योंकि इससे ब्याज दरों में कटौती की संभावना मजबूत होती है। यह संकेत इकोनॉमिक ग्रोथ के लिए अनुकूल माने जा रहे हैं। लेकिन इस गिरावट के पीछे की हकीकत किसानों के लिए संकट का संकेत बन रही है।
खाद्य महंगाई में ऐतिहासिक गिरावट
जून महीने में खाद्य महंगाई दर -1.1% के निगेटिव जोन में पहुंच गई। इसका प्रमुख कारण खाद्य वस्तुओं की कीमतों में तेज गिरावट है। टमाटर की कीमत 31.5%, प्याज 26.6% और दालों की कीमत 25.1% तक कम हुई है। सरकार ने आयात शुल्क में कटौती और शून्य शुल्क के जरिए बड़ी मात्रा में सस्ती खाद्य वस्तुओं का आयात किया।
उदाहरण के तौर पर:
– दलहन का आयात: वित्त वर्ष 2024-25 में 72.56 लाख टन
– खाद्य तेलों का आयात: 164.13 लाख टन
– अरहर, उड़द, पीली मटर: 31 मार्च, 2026 तक शुल्क मुक्त
– सोयाबीन तेल पर सीमा शुल्क: 27.5% से घटाकर 16.5% कर दिया गया
आयात पर निर्भरता ने स्थानीय मंडियों में फसलों की कीमतों को MSP (न्यूनतम समर्थन मूल्य) से नीचे धकेल दिया है।
किसानों की आय पर दोहरी मार
मध्यप्रदेश (Madhya Pradesh) और महाराष्ट्र (Maharashtra) की मंडियों में अरहर की कीमत करीब ₹6500/क्विंटल (MSP: ₹8000), जबकि सोयाबीन की कीमत ₹4300/क्विंटल (MSP: ₹5328) के आसपास है। यह तब है जब देश दलहन और तिलहन की घरेलू कमी से जूझ रहा है। उत्पादन घट रहा है, लेकिन सस्ता आयात कीमतों को और नीचे ला रहा है। इससे किसानों को उनके उत्पाद का उचित मूल्य नहीं मिल पा रहा।
खरीफ सीजन में बुवाई घटी
सस्ती कीमतों और घटते लाभ ने किसानों की फसलों में रुचि को स्पष्ट रूप से प्रभावित किया है। चालू खरीफ सीजन में अरहर की बुवाई का रकबा 2024 के 27.18 लाख हैक्टेयर से घटकर 2025 में 25.42 लाख हैक्टेयर रह गया है, वहीं सोयाबीन की बुवाई 107.78 लाख हैक्टेयर से घटकर 99.03 लाख हैक्टेयर पर आ गई है। यह बदलाव महज आंकड़ों का उतार-चढ़ाव नहीं, बल्कि किसानों की आर्थिक हताशा का संकेत है। जब बाजार में फसलों की कीमतें लगातार न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) से नीचे बनी रहती हैं, तो किसानों की आय पर सीधा असर पड़ता है, जिससे वे ऐसी फसलों की खेती से पीछे हटने लगते हैं। यदि यह प्रवृत्ति जारी रही, तो दीर्घकालिक रूप से न केवल फसलों का उत्पादन घट सकता है, बल्कि भारत की खाद्य आत्मनिर्भरता पर भी गंभीर संकट उत्पन्न हो सकता है।
उपभोक्ता को राहत, लेकिन किसान घाटे में
खाद्यान्न फसलों—जैसे गेहूं और चावल—के बंपर उत्पादन और मजबूत भंडार ने सरकार की मूल्य स्थिरीकरण रणनीति को सशक्त आधार प्रदान किया है। चालू वर्ष में सरकार ने 300.35 लाख टन गेहूं की खरीद की है, जो अब तक का वार्षिक उच्चतम स्तर है। साथ ही, 1 जुलाई 2025 तक केंद्रीय पूल में गेहूं का स्टॉक 358.78 लाख टन पहुंच चुका है, जिससे यह सुनिश्चित हो गया है कि आवश्यकतानुसार आपूर्ति बनी रहेगी। सरकार ने इस भंडार का उपयोग करते हुए ओपन मार्केट सेल स्कीम (OMSS) के तहत गेहूं को न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) से थोड़ी अधिक कीमत पर खुले बाजार में उपलब्ध कराया है, जिससे खुदरा कीमतों को नियंत्रण में रखने में मदद मिल रही है।
हालांकि, इसके उलट गैर-खाद्यान्न फसलों—जैसे अरहर, सोयाबीन और तिलहन—की गिरती कीमतों ने किसानों की मुनाफे की उम्मीदों को गहरा धक्का पहुंचाया है। इन फसलों की लागत तो बनी रहती है, लेकिन बाजार भाव MSP से नीचे गिर जाने के कारण किसानों को घाटा उठाना पड़ रहा है।
सेवा क्षेत्र में महंगाई बरकरार
जहां खाद्य महंगाई दर में कमी आई है, वहीं जनरल महंगाई दर अभी भी करीब 4% बनी हुई है। इसका अर्थ है कि स्वास्थ्य, शिक्षा और परिवहन जैसी सेवाओं की लागत में गिरावट नहीं आई है। उपभोक्ताओं को वहां अभी भी अधिक कीमत चुकानी पड़ रही है। यानी किसान कम कमा रहा है और उपभोक्ता ज्यादा खर्च कर रहा है, यह एक नीतिगत असंतुलन को उजागर करता है।
वैश्विक तुलना: भारत बनाम अमेरिका-ब्रिटेन
दुनिया की प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं में जून 2025 के आंकड़े यह दर्शाते हैं कि महंगाई पर पूरी तरह नियंत्रण किसी भी देश के लिए आसान नहीं है। अमेरिका (America) में जून माह की खुदरा महंगाई दर 2.7% और ब्रिटेन में 3.6% दर्ज की गई, जबकि इन देशों में खाद्य महंगाई दर क्रमशः 3% और 4.5% रही। इसके मुकाबले भारत की स्थिति बिल्कुल अलग रही, जहां खाद्य महंगाई दर -1.1% के निगेटिव जोन में पहुंच गई। यह वैश्विक तुलना दर्शाती है कि भारत ने खाद्य महंगाई को नियंत्रित करने में आक्रामक रणनीति अपनाई है—जिसमें सस्ते आयात, शुल्क में कटौती और निर्यात पर नियंत्रण जैसे उपाय शामिल हैं। हालांकि इससे उपभोक्ताओं को राहत मिली है, लेकिन दूसरी ओर किसानों को उनकी उपज का वाजिब मूल्य नहीं मिल रहा है, जिससे कृषि क्षेत्र पर दबाव बढ़ता जा रहा है। स्पष्ट है कि भारत में महंगाई नियंत्रण की सफलता का मूल्य कहीं न कहीं किसानों की आय में गिरावट के रूप में चुकाया जा रहा है।
कुलमिलाकर, महंगाई नियंत्रण को सरकार और रिजर्व बैंक की रणनीति में सर्वोच्च प्राथमिकता दी गई है, लेकिन इसका दुष्प्रभाव कृषि अर्थव्यवस्था पर स्पष्ट दिख रहा है। सस्ती आयात नीति, निर्यात प्रतिबंध, और घटते एमएसपी मूल्य जैसे उपायों ने किसानों की आर्थिक स्थिरता को चुनौती दी है। अगर यह ट्रेंड जारी रहा तो देश की खाद्य आत्मनिर्भरता भी संकट में पड़ सकती है। अब नीति निर्धारकों की जिम्मेदारी है संतुलन स्थापित करने की, जिससे उपभोक्ताओं को राहत मिले और साथ ही किसानों की आजीविका भी सुरक्षित रहे।
हमारे साथ जुड़ने के लिए लिंक पर क्लिक करें : https://whatsapp.com/channel/0029Vb0T9JQ29759LPXk1C45