नई दिल्ली, 10 दिसंबर (कृषि भूमि ब्यूरो): संसद में पेश की गई ताज़ा रिपोर्ट में संसदीय समिति ने केंद्र सरकार की प्रमुख सौर योजनाओं PM-KUSUM और पीएम सूर्य घर के क्रियान्वयन पर गंभीर सवाल उठाए हैं। समिति का कहना है कि इन योजनाओं का उद्देश्य किसानों को सस्ती और भरोसेमंद ऊर्जा उपलब्ध कराना था, लेकिन जमीनी स्तर पर इन्हें लागू करने में बड़े अवरोध हैं। नतीजतन, किसान लाभ पाने के बजाय कागजी कार्रवाई, देरी और खराब सेवा तंत्र में उलझ रहे हैं।
किसान दो-दो साल तक कागजी कार्रवाई में उलझे
मध्य प्रदेश के सीमांत किसान रमेश चौधरी उन हजारों किसानों में शामिल हैं जो दो वर्षों से PM-KUSUM योजना के तहत सोलर पंप के इंतजार में हैं। उनके पास बैंक फॉर्म से लेकर विक्रेताओं के कोटेशन तक का पुलिंदा है, लेकिन प्रक्रिया पूरी नहीं हो पा रही। चौधरी कहते हैं, “कहा था तीन महीने लगेंगे, लेकिन दो साल हो गए। अब तो उम्मीद भी टूटने लगी है।”
मराठवाड़ा से लेकर सौराष्ट्र तक यही कहानी दोहराई जा रही है-किसान डीजल पंप से मुक्ति चाहते हैं, पर सोलर पंप तक नहीं पहुँच पा रहे।
लक्ष्य तेजी से बढ़े, लेकिन जमीनी प्रगति बेहद धीमी
2019 में लॉन्च PM-KUSUM का लक्ष्य किसान पंपों को सौर ऊर्जा से चलाकर डीजल और अनियमित बिजली पर निर्भरता कम करना था। मगर आंकड़े बताते हैं कि योजनाएँ कागजों पर आगे बढ़ रही हैं, खेतों में नहीं।
- 12.7 लाख स्वीकृत स्टैंडअलोन पंपों में से सिर्फ 8.5 लाख की स्थापना
- 36 लाख के आवंटन के मुकाबले 6.5 लाख ग्रिड-कनेक्टेड पंप ही स्थापित
- कंपोनेंट-A में 10,000 मेगावाट के लक्ष्य के मुकाबले सिर्फ 641 मेगावाट की प्रगति
समिति ने कहा कि ये अंतर “नीति और कार्यान्वयन के बीच गहरी खाई” को दिखाता है।
फंडिंग सबसे बड़ी बाधा—बैंक अतिरिक्त दस्तावेज मांग रहे
रिपोर्ट के अनुसार, वित्तपोषण में देरी और बैंकों की सख्ती योजना की सबसे बड़ी बाधाओं में से एक है। कृषि अवसंरचना फंड के तहत लाने के बावजूद बैंकों ने उम्मीद के अनुसार ऋण स्वीकृत नहीं किए।
फरवरी 2025 तक प्राप्त आवेदन की संख्या 1,254 रही, 922 स्वीकृत किए गए लेकिन सिर्फ 891 में ऋण वितरण हुआ।
किसानों ने समिति को बताया कि बैंक योजना में अनिवार्य नहीं होने के बावजूद अतिरिक्त दस्तावेज और गारंटी मांगते हैं। विक्रेताओं द्वारा पहले एडवांस भुगतान की मांग भी किसानों की परेशानी बढ़ा रही है।
कई राज्यों ने माना कि विक्रेता जिला स्तर पर सेवा केंद्र स्थापित नहीं कर पाए। पंप खराब होने पर हफ्तों मरम्मत न मिलने से किसानों की फसलें जोखिम में पड़ जाती हैं। समिति ने रिपोर्ट में लिखा, “बीजाई के मौसम में न चलने वाला सोलर पंप, पंप न होने से भी खराब है।”
राज्यों के बीच बड़ी असमानता
जहां महाराष्ट्र, राजस्थान और गुजरात में स्थापना तेज है, वहीं बिहार, आंध्र प्रदेश, छत्तीसगढ़ और पश्चिम बंगाल काफी पीछे हैं। फीडर-लेवल सोलराइजेशन से डिस्कॉम को फायदा तो मिलता है, लेकिन किसानों की सीधी आय बढ़ाने वाला मॉडल, व्यक्तिगत सोलर पंप, धीमी गति से चल रहा है।
कंपोनेंट-A लगभग ठप—किसानों को अतिरिक्त आय का मौका हाथ से निकला
कंपोनेंट-A का उद्देश्य था कि किसान अपनी जमीन पर 500 kW–2 MW के सौर संयंत्र लगाकर अतिरिक्त बिजली बेचकर आय कमा सकें। लेकिन भूमि सत्यापन में देरी, इक्विटी जुटाने में कठिनाई और डिस्कॉम द्वारा समय पर बिजली खरीद समझौता (PPA) न करने की वजह से उद्देश्य हासिल नहीं हो सका है।
MNRE का दावा और समिति की चेतावनी
MNRE ने दावा किया कि अब तक की प्रगति से 34 करोड़ लीटर डीजल बचा है और प्रति वर्ष 4 करोड़ टन CO₂ उत्सर्जन में कमी आई है। लेकिन समिति का कहना है कि यदि संरचनात्मक समस्याएँ दूर हों, तो यह प्रभाव कई गुना बड़ा हो सकता है।
रमेश चौधरी की बात समिति के निष्कर्षों को और स्पष्ट करती है। वे कहते हैं, “डीजल महंगा है, बिजली अविश्वसनीय। सोचा था सोलर से इनसे मुक्ति मिलेगी, पर अब बैंक, विक्रेता और कागजी काम में फंसा हूँ।”
रिपोर्ट का निष्कर्ष साफ है-किसान मात्र लाभार्थी नहीं, भागीदार हैं। जब तक फंडिंग सरल नहीं होती, विक्रेता जवाबदेह नहीं बनते और पिछड़े राज्य गति नहीं पकड़ते, तब तक भारत की सौर क्रांति उन्हीं किसानों को पीछे छोड़ देगी जिनके लिए यह योजनाएँ बनाई गई थीं।
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