लेखक: डॉ. अरविंद दुबे (पीएचडी), इनवेस्टिगेटिव जर्नलिस्ट
भारत में एथनॉल क्रांति को आत्मनिर्भर भारत का ईंधन माना गया था — एक ऐसा कदम जो किसानों को सशक्त करेगा, पेट्रोल आयात पर निर्भरता घटाएगा और हरित विकास का मार्ग खोलेगा। सरकार ने वर्ष 2025 तक पेट्रोल में 20% एथनॉल मिश्रण (E20) का लक्ष्य हासिल करने की घोषणा की, वह भी तय समय से पाँच साल पहले। इसे पर्यावरणीय सफलता बताया गया, लेकिन हकीकत में यह कहानी कहीं अधिक जटिल और राजनीतिक रूप से संवेदनशील है।
एथनॉल नीति का राजनीतिक मोड़
2003 में गन्ने की शीरे से पेट्रोल में मिलावट शुरू हुई। 2018 में राष्ट्रीय जैव-ईंधन नीति (National Policy on Biofuels) ने एथनॉल स्रोतों को धान, मक्का और गन्ने के रस तक बढ़ाया। महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में राजनीतिक सहकारी समितियों ने इस नीति को मुनाफे का जरिया बना लिया। खाद्य निगम (FCI) से लगभग 5 मिलियन टन चावल और 4 मिलियन टन मक्का एथनॉल उत्पादन के लिए सस्ते दामों पर बेचा गया — जिसकी वास्तविक लागत टैक्सदाताओं ने चुकाई।
“हरित बचत” या वित्तीय भ्रम?
सरकार का दावा है कि इससे ₹24,000 करोड़ के तेल आयात की बचत हुई। मगर स्वतंत्र अर्थशास्त्री बताते हैं कि सब्सिडी, अनाज-विनियोजन और निर्यात-नियंत्रण से जुड़ा राजकोषीय नुकसान कहीं अधिक बड़ा है। यानी उपभोक्ता पेट्रोल पंप पर जो कीमत चुकाता है, उसी से यह “हरित लाभ” दोबारा टैक्स के रूप में वसूला जा रहा है।
राजनीतिक और कॉर्पोरेट गठजोड़
महाराष्ट्र की कई चीनी सहकारी संस्थाओं पर राजनीतिक परिवारों का नियंत्रण है। इन्हीं के पास एथनॉल संयंत्रों का भी बड़ा हिस्सा है। रिपोर्टों के अनुसार, केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी के परिवार से जुड़ी कंपनियाँ — CIAN Agro Industries और Manas Agro Industries — ने 2023 से 2025 के बीच राजस्व में 1700% की वृद्धि दर्ज की। भले ही मंत्री ने किसी प्रत्यक्ष हित से इनकार किया हो, मगर यह मामला “नीति और निजी लाभ” के मेल का उदाहरण बन चुका है।
किसानों और पर्यावरण की हकीकत
गन्ना किसानों को अब भी भुगतान में देरी झेलनी पड़ रही है, जबकि डिस्टिलरी मालिक रिकॉर्ड मुनाफा कमा रहे हैं। उत्तर भारत के किसानों को एफसीआई द्वारा सस्ते दामों पर अनाज बेचने से बाज़ार में दाम गिरने का नुकसान हुआ है।
पर्यावरणीय स्तर पर भी तस्वीर गंभीर है, 1 लीटर एथनॉल बनाने में 2,000–2,500 लीटर पानी लगता है। मराठवाड़ा और सोलापुर जैसे सूखा-प्रभावित क्षेत्र अब “वॉटर-क्राइसिस ज़ोन” बन चुके हैं। IIT-दिल्ली की एक स्टडी के अनुसार, E20 मिश्रण से कार्बन मोनोऑक्साइड घटती जरूर है, लेकिन नाइट्रोजन ऑक्साइड और एल्डिहाइड उत्सर्जन 120% तक बढ़ जाता है।
उपभोक्ता का छिपा बोझ
E20 पेट्रोल से माइलेज 6–10% तक घट जाता है और इंजनों में जंग लगने की शिकायतें बढ़ रही हैं। फिर भी पेट्रोल का खुदरा मूल्य ₹90–₹100 प्रति लीटर के आसपास है, क्योंकि टैक्स संरचना में कोई राहत नहीं दी गई।
हरित विकास या ग्रीन प्रोपेगेंडा?
भारत की एथनॉल नीति तकनीकी रूप से सफल दिखती है, पर सामाजिक-आर्थिक दृष्टि से यह “ग्रीन इल्यूजन” यानी हरित भ्रम साबित हो रही है। विशेषज्ञों का मानना है कि सच्ची ऊर्जा आत्मनिर्भरता तभी संभव है जब देश दूसरी पीढ़ी (2G) वाले अपशिष्ट-आधारित एथनॉल की ओर बढ़े — जो अनाज नहीं, बल्कि कृषि अपशिष्ट से बने।
जब तक यह बदलाव नहीं होता, तब तक यह क्रांति हरित कम और राजनीतिक ज़्यादा रहेगी — जहां ईंधन से ज्यादा सत्ता जलती है।
(डिस्क्लेमर:इस लेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं। इसमें उल्लिखित तथ्यों और विश्लेषण का उद्देश्य सार्वजनिक नीति पर विमर्श को प्रोत्साहित करना है।)