मध्य प्रदेश के एक छोटे से गाँव पारडसिंघा (महाराष्ट्र-मध्यप्रदेश की सीमा पर स्थित) की रहने वाली श्वेता भट्टड ने यह साबित कर दिया है कि खेती सिर्फ़ अन्न उपजाने का साधन नहीं, बल्कि यह कला, आत्मनिर्भरता और सामाजिक बदलाव की भी ज़मीन बन सकती है। राष्ट्रीय महिला किसान दिवस के अवसर पर उन्होंने अपने अनुभव, संघर्ष और प्रेरणादायक यात्रा को साझा किया।

प्रश्न 1: श्वेता जी, शुरुआत में थोड़ा अपने परिवार और बचपन के बारे में बताइए।

उत्तर:
मेरे पिताजी किसान थे और दादाजी भी खेती करते थे। दादाजी ज़्यादातर पेड़ लगाते थे और देसी वनस्पतियों से दवाइयाँ बनाते थे। बचपन से ही मैं मिट्टी, पेड़ों और खेतों से जुड़ी रही। हमारे परिवार में खेती और कला हमेशा साथ-साथ चले हैं। पेड़-पौधों, घास और फसल के वेस्ट से हम पेपर बनाते हैं, प्राकृतिक रंग और कपड़ा भी निसर्ग से ही आता है, और हमारा भोजन भी मिट्टी से ही। यही जुड़ाव मुझे हमेशा गाँव की ओर खींच लाता था।

प्रश्न 2: आपने शहर छोड़कर गाँव लौटने का निर्णय कैसे लिया?

उत्तर:
मेरे पिताजी ने हमारी पढ़ाई के लिए शहर का रास्ता चुना था, लेकिन मेरा मन हमेशा गाँव में ही बसता था। छुट्टियों और त्योहारों में जब भी गाँव जाती थी, खेतों और प्रकृति के बीच सुकून मिलता था। पढ़ाई पूरी करने के बाद लगा कि कला का असली उपयोग गाँव में रहकर ही किया जा सकता है — लोगों को कला के ज़रिए जोड़कर। इसलिए मैंने गाँव लौटने का निर्णय लिया।

प्रश्न 3: ‘बीज राखी’ की परिकल्पना कैसे आई?

उत्तर:
कुछ दोस्तों के ज़रिए मैंने नागपुर बीज उत्सव में हिस्सा लिया। वहीं से पता चला कि हम जो BT कपास उगा रहे हैं, वह हमें कंपनियों पर निर्भर बना रहा है। न हमारी ज़मीन सुरक्षित है, न हमारा स्वास्थ्य। उसी समय यह विचार आया कि क्यों न हम देसी कपास से कुछ ऐसा बनाएं जो लोगों को बीजों, कपास और मिट्टी से जोड़ सके।
तब “बीज राखी” की शुरुआत हुई — ऐसी राखी जो देसी कपास से बनी हो, प्राकृतिक रंगों से रंगी हो और जिसमें बीज भी लगाए गए हों, ताकि राखी बोई जाए और वह उगे।

प्रश्न 4: इस यात्रा की शुरुआत आसान नहीं रही होगी। कौन सी चुनौतियाँ आईं?

उत्तर:
सबसे बड़ी चुनौती थी बाज़ार खोजना। लोग चमकदार, प्लास्टिक वाली राखियाँ पसंद करते थे। हमारी राखियाँ सादगी से भरी थीं — हाथ कते धागे, देसी कपास और नैसर्गिक रंगों से बनी हुईं। साथ ही BT और देसी कपास का फर्क समझाना भी कठिन था। पर धीरे-धीरे लोगों ने समझा कि असली सुंदरता मिट्टी से जुड़ी चीज़ों में है।

प्रश्न 5: आज आपकी संस्था कितनी महिलाओं से जुड़ी है और काम कैसे चलता है?

उत्तर:
आज हमारे साथ 14 गाँवों की लगभग 350 महिलाएँ जुड़ी हैं। हम घर-घर जाकर प्रशिक्षण देते हैं — सिलाई, कढ़ाई, बुनाई, क्रोशिया, माइक्रमें, बीज बचाना, प्राकृतिक रंग बनाना आदि। महिलाएँ अपने घरों में राखियाँ बनाती हैं, फिर हमारी टीम उन्हें इकट्ठा करके स्टूडियो में पैक करती है और पूरे भारत में भेजती है।
अब तक हम लगभग 6 लाख से अधिक बीज राखियाँ बना चुके हैं जो भारत और विदेश दोनों में भेजी गई हैं।

प्रश्न 6: ‘बीज राखी’ से क्या बदलाव आए हैं ग्रामीण महिलाओं के जीवन में?

उत्तर:
शुरुआत में महिलाएँ चुपचाप राखियाँ बनाती थीं, लेकिन आज वे आत्मनिर्भर हैं। कोविड के समय जब पुरुषों की नौकरियाँ गईं, तब महिलाओं ने राखी बनाकर घर चलाया। अब वे अपने बच्चों की पढ़ाई और घरेलू ज़रूरतें खुद पूरी कर पा रही हैं। सबसे बड़ी बात — अब महिलाएँ बोलती हैं, निर्णय लेती हैं और अपनी पहचान बना रही हैं।

प्रश्न 7: आपने “बीज पटाखे” बनाने की शुरुआत क्यों की?

उत्तर:
हम जंगलों के पास रहते हैं, जहाँ हर साल सागवान की कटाई और आग लगने से पर्यावरण को नुकसान होता है। साथ ही, त्योहारों में शोर और प्रदूषण बढ़ता जा रहा है। तब हमने सोचा — क्यों न “बारूद नहीं, बीज चाहिए” का संदेश फैलाया जाए।
इससे “बीज पटाखे” की शुरुआत हुई — ऐसे पटाखे जो फूटने पर पेड़ या पौधे उगाते हैं, शोर नहीं करते।

प्रश्न 8: आप कला और खेती को कैसे जोड़ती हैं?

उत्तर:
कला दिल तक पहुँचती है। जब हम बीजों की कहानियाँ, कपास की यात्रा या गाँव के जीवन को राखियों और कागज़ के डिज़ाइन में डालते हैं, तो वह केवल एक उत्पाद नहीं रहता, बल्कि एक कहानी बन जाता है। यही कला का असली अर्थ है — संवेदनशीलता जगाना, जोड़ना, और बदलाव लाना।

प्रश्न 9: आपके काम से समाज में क्या बड़ा संदेश जा रहा है?

उत्तर:
हम जो पहनते हैं, जो खाते हैं — सब मिट्टी से आता है। हमें यह समझना होगा कि कंपनियों पर निर्भर खेती हमें धीरे-धीरे अपनी ज़मीन और बीजों से दूर कर रही है।
‘बीज राखी’ इसी जागरूकता का प्रतीक है — यह सिर्फ़ राखी नहीं, बल्कि एक आन्दोलन है जो कहता है:
“हमारा बीज, हमारी मिट्टी, हमारा भविष्य।”

प्रश्न 10: आगे का लक्ष्य क्या है?

उत्तर:
हम और भी मीनिंगफुल प्रोडक्ट्स बनाना चाहते हैं — जैसे बीज पटाखे, देसी कपास का कपड़ा, बीज आभूषण, और फसल के वेस्ट से बने पेपर।
अगर सरकार और समाज का सहयोग मिले, तो हम और गाँवों को जोड़ सकते हैं, पलायन रोक सकते हैं और हर महिला को अपने गाँव में ही उद्यमी बना सकते हैं।

प्रश्न 11: महिला किसान दिवस के अवसर पर आप अन्य महिलाओं को क्या संदेश देना चाहेंगी?

उत्तर:
बदलाव आसान नहीं होता, लेकिन नामुमकिन भी नहीं। हर महिला में ताक़त है कि वह समाज बदल सके।
खुद पर भरोसा रखिए, मिट्टी से रिश्ता बनाए रखिए — क्योंकि जब एक महिला आगे बढ़ती है, तो उसके साथ पूरा समाज आगे बढ़ता है।

 

यह सिर्फ़ राखी नहीं — यह मिट्टी से रिश्ता, आत्मनिर्भरता की परंपरा और संवेदनशील समाज की नींव है।
श्वेता भट्टड, महिला किसान और कलाकार

 

 

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